लाचार पत्रकारिता पर भ्रष्टाचार का कसता शिकंजा
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धनंजय कुमार सिन्हा, सामाजिक कार्यकर्ता
मीडिया बिक चुकी है. ख़ासकर चुनावों के समय पेड न्यूज के शोर बार-बार उठते हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहारे कई बाबा मालो-माल हो रहे हैं. रात में टेलीविज़न पर अमिताभ बच्चन की आँखें एवं श्रीदेवी के होठ को मिलाकर बनाई गई तस्वीर को पहचानने की गुणात्मक-हीन प्रतियोगिता में टेलीकॉम कंपनियों की मदद से करोड़ों का अवैध घोषित कर देने योग्य व्यवसाय चल रहा है. अब अख़बार पढ़ने वालों एवं टेलीविज़न-दर्शकों को ही तय करना है कि क्या सही है और क्या ग़लत. मीडिया अपनी जवाबदेही का दायित्व धीरे-धीरे जनता के कंधों पर धकेलती जा रही है.
समाज एवं देश को दिशा देने में पत्रकारिता का हमेशा से महत्वपूर्ण स्थान रहा है. चाहे आज़ादी की लड़ाई हो या जेपी आंदोलन एवं अन्ना आंदोलन जैसे सैकड़ों बड़े-छोटे आंदोलनों में पत्रकारिता ने अहम भूमिका निभाई है. जब-जब हमारे लोकतंत्र पर संकट के बादल छाए हैं, उन्हें पत्रकारिता की सतर्कता एवं सूझ-बूझ से टाला गया
है.
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला पत्रकारिता पर अब भ्रष्टाचार का शिकंजा कसता जा रहा है. इसी वर्ष संपन्न हुए लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व लोकसभा चुनाव का ही उदाहरण लें तो उस समय पत्रकारिता में फैला भ्रष्टाचार साफ-साफ दिख रहा था. इस चुनाव में चुने गये करीब-करीब सभी सांसदों एवं हारे हुए प्रत्याशियों को चुनाव के समय मीडिया में फैले भ्रष्टाचार से रूबरू होना पड़ा है. यह भ्रष्टाचार राष्ट्र एवं राज्य स्तर पर नई दुल्हन की तरह थोड़ा ढँका-ढँका सा था, पर जिला एवं प्रखंड स्तर पर इसकी स्थिति कम-अधिक वेश्याओं जैसी थी.
हमारे इस लोकतंत्र में सामाजिक आदर्शों का नींव रखने वाली पत्रकारिता आख़िर इतनी ज़्यादा लाचार क्यों हो गई - यह विचारणीय विषय है. कहीं इसके पीछे भी पापी पेट का सवाल तो नहीं है?
इस लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभ - विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का खर्च सरकारी
खजाने से चलता है और इसी पैसे इन स्तंभों के कर्मी भी अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं. पर पत्रकारिता को पैसा कहाँ से मिलता है? मीडिया के लोग जिस पैसे से अपना एवं अपने परिवार के लोगों का भरण-पोषण करते हैं, वह पैसा कहाँ से आता है? मीडिया के लोगों को व्यवसायियों के भरोसे छोड़ दिया गया है. धन्य हो उन समाजसेवी व्यावसायियों का, जिनके सहारे इस देश में दशकों तक मीडिया की निष्पक्ष छवि बनी रही. इसमें तो भ्रष्टाचार के दीमक सबसे पहले लग जाने चाहिए थे. पर इस चौथे स्तंभ में भ्रष्टाचार का व्यापक प्रवेश चौथे चरण में हुआ है - यही अपने आप में आश्चर्यजनक, सुखद एवं शुभ है. ऐसा लगता है कि मानो जब पत्रकारिता ने देखा कि अन्य तीन बलवान मित्र रात के अंधेरे में छुपकर खाना खा लेते हैं और फिर दिन में उपवास पर बैठ जाते हैं, तो फिर मैं तो ऐसे भी दीन-हीन हूँ, थोड़ा पानी पी लेने भर में हर्ज क्या है.
मीडिया से हम अपेक्षा तो अन्य तीनों स्तंभों से भी ज़्यादा रखते हैं, पर मीडिया अपना गुज़ारा कैसे कर रहा है - यह जनसाधारण शायद ही जानते हों. आजकल प्रिंट मीडिया के प्रतिनिधि प्रखंड-स्तर तक फैले हैं, पर उन्हें मेहनताना न के बराबर मिलता है. बड़े प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आय के साधन व्यावसायिक एवं सरकारी Advertisements हैं, जो उनकी निष्पक्षता को प्रभावित करता है. फिर कुछ अवैध घोषित कर देने योग्य ठग बाबाओं एवं "फोटो पहचानो, इनाम पाओ" जैसी कंपनियों के भी Advertisements हैं, जिसे मीडिया मालिकों के लाभ का ख्याल रखने के लिए चलने दिया जा रहा है. अब सारे मीडिया मालिक समाजसेवी-व्यवसायी ही हों, यह ज़रूरी भी तो नहीं है. कुछ छोटी पत्र-पत्रिकाओं का मालिक खुद कोई धुनी पत्रकार ही है तो उनमें से ज़्यादातर पत्रिकाएँ उस पत्रकार की ज़मीन-जायदाद एवं खेत का अधिकांशतः भाग बिक जाने के बाद बंद हो जाती हैं.
मीडिया का भी सरकारी खजाने पर अधिकार होना चाहिए. मीडिया के लोगों को भी सरकारी खजाने से उनका हिस्सा मिलना चाहिए. भूखे रहकर भी लोकतंत्र की रक्षा करते रहना अकेले उनका ही दायित्व नहीं होना चाहिए. देश के खजाने से वेतन मिलने के बाद भी विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका भ्रष्टाचार के चंगुल से नहीं बच पाई. अगर इनका सरकारी वेतन बंद कर दिया जाए और इन्हें भी पत्रकारिता की तरह व्यवसायियों के भरोसे छोड़ दिया जाय तो कल्पना कीजिए कि देश का क्या हाल होगा.
अब तो कुछ नेता मीडिया को जेल भेजने की भी बात कर रहे हैं. यह सही भी है कि मीडिया के जो लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं उन पर कार्रवाई होनी चाहिए. पर पहले मीडिया के लोगों को भी सीधे सरकारी खजाने से वेतन मिलने का प्रावधान होना चाहिए ताकि वे जीविकोपार्जन की दृष्टि से निश्चिंत रहकर निष्पक्षता से अपना काम कर सकें. यह प्रावधान
मदद या अनुदान के रूप में नहीं होना चाहिए, यह अधिकार के रूप में होना चाहिए ताकि प्रत्येक मीडियाकर्मी यह महसूस कर सके कि वह देश के खजाने से जनता का अर्जित किया हुआ पैसा ले रहा है और इसलिए देश एवं जनता की सेवा करना उसका कर्तव्य है. सरकार को चाहिए कि अब मीडिया के लिए भी रोडमैप तैयार करे. एक मानक तैयार हो जिसके आधार पर अलग-अलग मीडिया-समूहों को उनके कार्यक्षमता एवं गुणवत्ता के आधार पर कर्मियों के लिए सरकार द्वारा वेतनमान मिले. शुरुआत छोटी ही क्यूँ न हो, पर होनी चाहिए. अन्यथा भूखे किसानों की ही तरह ईमानदार पत्रकारों के आत्मदाह की खबरें भी अब जल्दी ही छपनी शुरू हो जाएगी क्योंकि उनके पास अब दो ही विकल्प रह गये हैं - या तो किसी-न-किसी समझौते के तहत बिक जाना या फिर आत्मदाह.
8 June, 2014