Monday, May 12, 2014

महिलाएँ पुरुषों से श्रेष्ठ हैं
फिर भी कर रहीं पुरुषों से बराबरी की प्रतियोगिता

-    धनंजय कुमार सिन्हा, सामाजिक कार्यकर्ता

आधी आबादी का सच तो यही है कि शक्ति की स्वरूप पार्वती जी की ही तरह महिलाओं के अनेकानेक रूप हैं, जिन्हें पूरी तरह से किसी आलेख में समाया नहीं जा सकता है. हाँ, उसके कुछ स्वरूपों एवं वर्तमान परिस्थियों की थोड़ी-बहुत चर्चा ज़रूर की जा सकती है और करनी भी चाहिए.
प्राकृतिक रूप से ही महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिकाँशतः मामलों में काफ़ी आगे हैं. पुरुषों में पाँच इंद्रियाँ होती हैं, जबकि महिलाओं में छह. किसी भी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए पुरुषों को तर्क का सहारा लेना पड़ता है, इसके लिए उन्हें ज्ञान एवं अनुभव अर्जित करने पड़ते हैं, जबकि महिलाओं में उपस्थित छठी इंद्रिय बिना किसी तर्क के ही सिर्फ़ महसूस कर निष्कर्ष तक पहुँचने में सक्षम होती है.
शारीरिक रूप से एक तरफ महिलाएँ कोमल होती है जो सौंदर्य का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ उनमें वेदना की सहनशीलता भी अत्यधिक होती है, जो गर्भधारण के नौ महीनों में एवं शिशु जन्म के समय प्रदर्शित होता है.
साधारण दिन-प्रति-दिन के कार्यकलापों पर भी अगर थोड़ा सा गौर करें तो हम पाते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांशतः मामलों में महिलाएँ कछुए की तरह धीरे-धीरे काम करती हुईं आगे निकल जाती हैं जबकि पुरुष अभिमान में खरगोश की तरह आराम फरमाता रह जाता है. कार्यक्षमता अधिक होने के बावजूद ज़्यादातर महिलाओं में दूब की तरह झुकने का भी गुण विद्यमान होता है जो तूफान जैसे मुश्किलों में भी उनके वजूद को कायम रखने में मदद करता है.
साथ ही, महिलाओं में ममता एवं प्रेम का अदम्य साहस होता है. यही वजह है कि वह बाघ के मुँह से भी अपने बच्चे को छीन कर ला सकती है. यह महिलाओं के अपार ममता एवं प्रेम की ही शक्ति है जो उसे चेचक जैसी बीमारी से ग्रस्त उसके बच्चे की सेवा करने का अवसर देती है. छुआछूत वाले इस रोग में पुत्र के प्रति महिलाओं का अगाध प्रेम ही प्रतिरोधक बनकर खड़ा रहता है. प्रेम में बिना शर्त सर्वस्व न्यौछावर करने की मानसिकता भी महिलाओं में ज़्यादा पाई जाती है. महिलाओं में खूबसूरत एवं अतिरिक्त गुणों की प्रकृति-प्रदत्त बाहुल्यता है. ऐसे में पुरुष कभी महिलाओं की बराबरी कर ही नहीं सकता.
प्राचीन इतिहास में मातृ-सत्तात्मक समाज के प्रमाण भी मिले हैं. पर ज़रूर पुरुषों ने उन्हें ठगी से शक्तिहीन किया होगा क्योंकि महिलाओं के एक सदगुण और एक अवगुण पुरुष समाज को उन पर हावी होने का मौका देते हैं. वह सदगुण है पुत्र के प्रति अतिमोह एवं अवगुण है महिलाओं के बीच आपसी ईर्ष्या या दूसरे शब्दों में कहें तो महिलाओं के बीच एकता की कमी. यही दो वजह ज़रूर ही मुख्य रहे होंगे जिनकी वजह से मातृ-सत्तात्मक समाज का अंत हुआ होगा.
पर वर्तमान में महिलाओं की परिस्थिति अजीबोगरीब हो गई है. वस्तुतः आज के परिप्रेक्ष्य में महिलाएँ अपनी क्षमता की तुलना में सामाजिक तौर पर काफ़ी कमजोर हुईं हैं. उन्हें कमजोर करने में पुरुष-वर्ग ने सीधे तौर पर मुख्य भूमिका निभाई है. असल में शारीरिक बनावटों एवं मानसिक तथा हार्दिक गुणों में महिलाएँ ज़्यादा सशक्त हैं. उनकी तुलना में पुरुष हमेशा से कमजोर रहे हैं एवं आगे भी कमजोर ही रहेंगे. पर पिछले कई सौ वर्षों से पुरुषों का एक दाँव सफलता पूर्वक चलता आ रहा है. पुरुषों ने महिलाओं को उनकी वास्तविक क्षमताओं से भ्रमित कर अपने से बराबरी करने के लिए ललकारा है. महिलाएँ यहाँ पर उनके चाल में फँस गई हैं. अब महिलाएँ लगातार पुरुषों से बराबरी करने के लिए संघर्ष कर रही हैं. अजीबोगरीब प्रतियोगिता चल पड़ी है. मानो सोना और चाँदी में प्रतियोगिता है. चाँदी को तो पता चल गया है कि वह लाख चाह कर भी सोना नहीं हो सकता. पर उसने सोना को भ्रमित कर उसे खुद की बराबरी करने के लिए ललकारने में सफल हुआ है. तब से सोना लगातार चाँदी की बराबरी करने का प्रयास कर रहा है. बराबरी करने के प्रयास में सोना कभी खुद को घीसता है तो कभी खुद पर रंग लगा लेता है. तरह-तरह से बार-बार प्रयास करने पर भी सोना सफल नहीं हो पा रहा है. यहाँ पर एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस विपरीत प्रतियोगिता के बाद भी आख़िर भीतर से सोना तो सोना ही है. वह चाँदी से हमेशा बेहतर है. इस विपरीत प्रतियोगिता से सोना के वास्तविक स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता. बस मुश्किल इतनी सी है कि सोना खुद को सिर्फ़ इसलिए तुच्छ मानता है कि वह चाँदी की बराबरी नहीं कर पा रहा है.
आज हमारे समाज में यह साफ-साफ देखा जा सकता है कि महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र एवं चीज़ों में पुरुषों से बराबरी करने का प्रयास कर रही हैं. उन्होनें पुरुषों को कई क्षेत्रों में बार-बार पीछे भी कर दिया है. महिलाओं में किसी भी क्षेत्र में काम करने अथवा आगे बढ़ने की इच्छा अथवा महत्वाकांक्षा होना अच्छी बात है, पर यह अगर पुरुषों से बराबरी करने के उद्देश्य से किया जाता है तो सिर्फ़ उस कार्य के पीछे छुपे प्रतियोगिता के भाव की वजह से उसमें गुणात्मक निम्नता जाती है जो महिलाओं को सामाजिक रूप से और ज़्यादा पीछे धकेल देता है.
साधारण कार्य क्षेत्रों पर अगर गौर करें तो हम पाते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से आगे बढ़ रही हैं. बड़ी-छोटी कंपनियों में वे पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा कुशलता से काम करते हुए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं. राजनीति में भी उनका हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है. पर मुख्य समस्या पुरुषों से प्रतियोगिता का वह भाव है जिसके कारण कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ने के बावजूद मानसिक स्तर पर वे पीछे ही रह जाती हैं. इसी भाव की वजह से कई बार उन्हें पुरुषों के बदनीयती का शिकार भी होना पड़ जाता है.
महिलाएँ पुरुषों से सभी तरह से ज़्यादा सक्षम हैं. पर पुरुषों ने उन्हें बराबरी के लिए ललकार कर उनकी कमजोर नस को पकड़ रखा है. महिलाएँ लगातार पुरुषों को हर क्षेत्र में चुनौतियाँ दे रही हैं. सोना लगातार चाँदी बनने के लिए सारे प्रयत्न कर रहा है. पुरुष इस प्रतियोगिता में लगातार हार रहे हैं. पर हार कर भी पुरुष जीत जा रहे हैं और महिलाएँ जीत-जीत कर भी अब तक हारी हुईं हैं. सोना अब भी चाँदी नहीं बन सका है और हक़ीकत यह है कि वह कभी भी चाँदी नहीं बन पाएगा.
महिलाओं के साथ समस्या सिर्फ़ भाव का है. सोना को बस यह समझने की आवश्यकता है कि वह तो पहले से ही चाँदी से श्रेष्ठ है. उसका आधार रूप ही श्रेष्ठतम है. उसे किसी से बराबरी करने की ज़रूरत ही नहीं. वे जिस दिन पुरुषों के ललकार रूपी कुचक्र से को समझ जाएँगी और खुद में प्रतियोगिता के भाव को मिटा पाएँगी, उसी दिन से वे पुरुषों से मानसिक स्तर पर भी श्रेष्ठ हो जाएँगी. वे पहले से ही श्रेष्ठ है. बस जागने भर की देर है.
प्रतियोगिता के इस भाव के कई कुप्रभाव भी समाज में देखने को मिलते हैं. पहनावों में प्रतियोगिता महिलाओं के कमजोर मानसिकता को दर्शाता है. फिर उसे मौलिक अधिकार के तर्कों से ढँक दिया जाता है. वह बराबरी की प्रतियोगिता का परिणाम ही है कि कष्ट कर-कर के महिलाएँ लंबी हील वाले जूते पहन रही हैं और कई बीमारियों का शिकार हो रही है. कोई यूँ ही हील के बराबर उठंग कर दस कदम चलकर एक बार देख ले तो पता चल जाएगा कि लंबी हील के जूते पहनकर चलना कितना कठिनकर कार्य है पर बराबरी करने की प्रतियोगिता का भाव इतना प्रबल है कि महिलाएँ सहर्ष ज़्यादा-से-ज़्यादा लंबी हील वाले जूते पहन कर चल रही हैं और इसमें वे महानता भी समझ रही हैं. यहीं पर पुरुष उन्हें अपने से पीछे करने में सफल हो जा रहा है.
पितृ सत्तात्मक इस भारत देश में पुरुषों ने महिलाओं को खुद से निकृष्ट रखने के लिए कई मान्यताओं को सामाजिक रूप से लगातार मजबूत भी किया है. महिलाओं द्वारा वेश्यावृति को पुरुषों ने सामाजिक रूप से सबसे निकृष्ट श्रेणी में रखा है. जबकि वेश्यावृति में जितनी भागीदारी किसी महिला की होती है उतनी ही भागीदारी किसी--किसी पुरुष की भी होती है. पर वेश्यावृति के लिए पुरुष सामाजिक रूप से उतना निकृष्ट नहीं माना जाता है जितना कि महिलाएँ. प्रेमचंद जी ने लिखा है कि अगर कोई भूखा आदमी रोटी चोरी ले तो वह पाप नहीं है. पुरुष यदि कमजोर और मजबूर हो तो थोड़ा अनैतिक कार्य भी कर दे तो सामाजिक दृष्टि से यह कोई पाप कार्य नहीं है और यह सही भी है. ऐसी सामाजिक सोच भारत जैसे देश की उदारता को भी दर्शाता है. पर शायद ही भारत के किसी महत्वपूर्ण साहित्यकार ने यह लिखा हो कि महिलाएँ यदि अपना एवं अपने बच्चों का भरण-पोषण करने में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हो पा रही हैं तो ऐसे में वेश्यावृति कर धन अर्जित करना कोई पाप नहीं है. चोरी के कार्य में दूसरे का भी नुकसान होता है. पर यदि कोई ग़रीब मजबूर महिला वेश्यावृति का कार्य करती है तो इसमें सीधे-सीधे किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचता, फिर भी चोरी को कम और वेश्यावृति को सामाजिक रूप से ज़्यादा निकृष्ट श्रेणी में रखा गया है. यह पुरुषों द्वारा महिलाओं को सामाजिक रूप से नीचे रखने के लिए सोची-समझी तैयारी है. पर महिलाओं को सामाजिक रूप से निकृष्ट रखने की इस साजिश ने कई कुप्रभाव को जन्म दिया. लड़कियों की भ्रूण-हत्या की अधिकता इसी साजिश का परिणाम है, जिसके परिणामस्वरूप भारत में पुरुषों एवं महिलाओं की संख्या के अनुपात में लगातार अंतर बढ़ रहा है और इस कारण बलात्कार की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं और प्रशासन इसे रोकने में बिल्कुल ही अक्षम है. देश में चोरी-छुपे चलने वाली वेश्यावृति को अगर पूरी तरह से बंद कर दिया जाय तो देश में बलात्कार की घटनाओं में कम-से-कम पाँच सौ गुना की तो वृद्धि तो ज़रूर ही हो जाएगी. तब प्रशासन का कार्य को अन्य सभी कार्यों को छोड़कर सिर्फ़ बलात्कार की घटनाओं से ही निबटना रह जाएगा.
भ्रूण-हत्या को रोकने के लिए देश भर में अभियान चलाए जा रहे हैं. सरकार इन अभियानों पर काफ़ी खर्च कर रही है. पर उन अभियानों में भी पुरुषों ने बराबरी वाले प्रतियोगिता के भाव को खोने नहीं दिया है. बड़े-बड़े होर्डिंग एवं प्रचार-सामग्रियों में लड़के एवं लड़कियों को बराबर बताया जा रहा है. जबकि कम-से-कम ऐसे अवसरों पर तो इस सच्चाई को उजागर कर देना चाहिए था कि लड़कियाँ लड़कों से श्रेष्ठ हैं.

धनंजय कुमार सिन्हा, सामाजिक कार्यकर्ता
1, BSIDC कॉलोनी, .एन. कॉलेज के सामने, बोरिंग रोड, पटना-800013
मो. 9334036419

12 May, 2014

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