Tuesday, May 27, 2014


आम आदमी पार्टी : पार्टी ऑफ मिस्टेक्स

आज आम आदमी पार्टी और उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल दोनों मुश्किल के दौर से गुजर रहे हैं. लोकसभा चुनाव में अनापेक्षित हार, फिर केजरीवाल द्वारा जमानत नहीं लेने का निर्णय लेकर जेल चले जाना और इसी बीच पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्या शाजिया इल्मी का पार्टी से इस्तीफ़ा देना - ये सारी मुश्किलें पार्टी नेताओं की ग़लतियों की वजह से ही पैदा हुई हैं.
असल में इन ग़लतियों की शुरुआत दिल्ली की सरकार से इस्तीफ़ा देने से ही शुरू हो गई थी. अल्प समय में दिल्ली विधानसभा-चुनाव में प्राप्त जनसमर्थन, देश भर से पार्टी को सोशल साइट्स पर मिलीं सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ एवं देश के कोने-कोने से आम आदमी पार्टी के दिल्ली कार्यालय पहुँच रहे सामाजिक-राजनीतिक लोगों को सुनकर शायद अरविंद केजरीवाल को लगा कि देश की जनता कॉंग्रेस और भाजपा के भ्रष्टाचार एवं साँठगाँठ को समझ चुकी है और इन्हें दिल्ली की ही तरह उखाड़ फेंकने को तैयार है.
केजरीवाल के सामने एक तरफ दिल्ली की सीमित अधिकारों वाली सरकार थी तो दूसरी तरफ़ लोकसभा चुनाव जिसमें कॉंग्रेस और भाजपा को एक साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव की ही तरह देश से उखाड़ फेंकने का मौका. केजरीवाल पाँच साल और इंतजार नहीं करना चाहते थे. उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना. यहाँ पर उनसे देश की आम जनता के सही रुख़ को नहीं समझ पाने की बहुत बड़ी भूल हुई. सोशल साइट्स की सीमितता का अहसास भी उन्हें लोकसभा चुनाव में हार के बाद हो रहा होगा. सबसे बड़ी भूल तो ये हुई कि देश के कोने-कोने से पार्टी के दिल्ली कार्यालय आकर उनसे मिलने वाले तथाकथित सामाजिक-राजनीतिक लोगों को वे ठीक से समझ ही नहीं पाए. दिल्ली में तो ऐसे लोगों ने केजरीवाल से बड़ी-बड़ी नैतिकता की बातें की थीं, पर चुनाव के समय उनमें से अधिकांश लोग गायब हो गये. टिकट बँटवारे से पूर्व तक ही ऐसे लोगों को आम आदमी पार्टी और उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल के सिद्धांत बड़े अच्छे लगते थे.
दिल्ली की सरकार से इस्तीफ़ा देना केजरीवाल की भूल तो थी ही, पर उससे भी बड़ी भूल थी बिना जनसंपर्क किए इस्तीफ़ा देना. नेताओं के लिए किसी भी बड़े निर्णय से पूर्व जनता के बीच जाकर संवाद करने का आदर्श केजरीवाल ने ही स्थापित किया था पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने से पूर्व उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस कारण सारा-का-सारा दोष उनके ही माथे पर चला गया. विपक्षी पार्टियों ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया और पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के नेताओं के पास केजरीवाल के इस्तीफ़ा देने के कारणों पर पूछे गये सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं था
अगर वे इस्तीफ़ा देने से पहले जनता के बीच जाकर पूछ लेते तो शायद उन्हें पता चल जाता कि जनता अपने वोट के अहमियत को उनसे भी ज़्यादा समझती है और दिल्ली की जनता उनके इस्तीफ़ा देने की नौबत ही नहीं आने देती.
लोकसभा चुनाव में हार से केजरीवाल निराश ज़रूर हुए होंगे, पर उनकी पार्टी की इस हार में उनके खुश होने की वजहें ज़्यादा हैं. केजरीवाल ने खुद ही जनता से अपील की थी कि टिकट बँटवारे में उनसे एवं उनकी पार्टी से भूलें हो सकती हैं और यदि उनकी पार्टी का प्रत्याशी काबिल हो तो उसे वोट देना. क्या केजरीवाल आज यह दावा कर सकते हैं कि जिन उम्मीदवारों को उनकी पार्टी से टिकट मिला था यदि वे सभी जीत जाते तो कॉंग्रेस से ज़्यादा अच्छा देश चलाते. यदि केजरीवाल यह दावा करने में अक्षम हैं तो उनके लिए यह हार खुशी का कारण होना चाहिए कि कम-से-कम वे देश को गर्त में ले जाने का कलंक लेने से बच गये.
केजरीवाल से दूसरी बड़ी ग़लती कॉंग्रेस के बजाय भाजपा पर ज़्यादा आक्रामक होने की हुई. कॉंग्रेस पिछले दस वर्षों से सत्ता में थी. देश की समस्याओं के लिए प्रत्यक्ष रूप से कॉंग्रेस ज़्यादा ज़िम्मेदार थी. यह सच है कि भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए ईमानदारीपूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं किया. इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा भी देश की समस्याओं के लिए उतनी ही ज़िम्मेदार थी. विपक्ष के रूप में भाजपा अगर अपने कर्तव्यों का सही रूप से निर्वहन कर रही होती तो ही अन्ना हज़ारे को आंदोलन करने की ज़रूरत पड़ती और ही केजरीवाल को पार्टी बनाने का मौका मिलता. फिर भी, जनता देश की समस्याओं के लिए सत्तासीन कॉंग्रेस को ज़्यादा ज़िम्मेदार मान रही थी और विकल्प के रूप में भाजपा की ओर देख रही थी. ऐसे में भाजपा पर ज़्यादा आक्रामक हो जाना ग़लत राजनीतिक निर्णय था.   
अरविंद केजरीवाल देश में अनेकों 'केजरीवाल' पैदा करना चाहते थे, पर शायद वे अपनी पार्टी के संस्थापक एवं कार्यकारिणी के सदस्यों को भी 'केजरीवाल' बनाने में असफल रहे. वे दिल्ली विधान-सभा चुनाव में शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान कर यह संदेश देने में सफल रहे थे कि उनका उद्देश्य सत्ता से ज़्यादा भ्रष्टाचारियों को चुनौती देने का है. कॉंग्रेस द्वारा सांप्रदायिकता का पर्याय घोषित हो चुके नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा करके भी केजरीवाल ने दिल्ली जैसा ही संदेश देने का साहसिक प्रयास किया. पर जब शाजिया इल्मी ने रायबरेली से चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया और पार्टी के अन्य शीर्ष नेताओं में से भी किसी ने आगे आकर सोनिया गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़ने की उत्सुकता दिखाने के बजाय सभी ने 'सेफ सीट' को ज़्यादा तवज्जो दिया, तभी यह संदेश जा चुका था कि इस पार्टी के भी ज़्यादातर नेताओं की पहली इच्छा भ्रष्टाचार से लड़ने की नहीं, बल्कि सत्ता पाने की है.
अब तो शाजिया इल्मी ने पार्टी से इस्तीफ़ा भी दे दिया है. इस्तीफ़ा का समय भी उन्होंने ऐसा चुना जब अरविंद जेल में थे. अभी और जाने कितने शाजिया का इस्तीफ़ा आएगा. जिन कारणों को दर्शा कर शाजिया ने पार्टी छोड़ा है, क्या वे बता सकती हैं कि अगर वे चुनाव में जीत जातीं तो भी उन कारणों की वजह से पार्टी से इस्तीफ़ा दे देतीं.
शायद अन्ना हज़ारे ने सही ही कहा था कि अभी लोकसभा चुनाव लड़ने का अरविंद का फ़ैसला सही नहीं है.   

धनंजय कुमार सिन्हा,
1, BSIDC कॉलोनी, .एन. कॉलेज के सामने, बोरिंग रोड, पटना-800013
मो. 9334036419
27 May, 2014

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