अपनत्व-भाव को शाश्वतता दो
हे कृष्ण !
तुमने अपनी अमर-वाणी में
कह तो दिया कि
’आदमी अकेला है’,
फिर अकेला दिमाग भी तो
संचालित कर सकता था आदमी को
दिल देने की जरुरत ही क्या थी?
क्योंकि दिल जब भी हावी होता है दिमाग पर
तभी बेचैन होकर कोई अपना ढूंढने लगता है,
पर तुम्हारी वाणी भी तो
सूर्य की तरह अटल है,
कुछ देर भले ही
गलतफहमियों में जी लेता है आदमी
अपनों के साथ,
पर सच्चाई का अहसास होते ही
दर्द से भर जाता है दिल का कोना-कोना
और गुब्बारे की तरह फुला हुआ दिल
फूट कर सिकुड़ जाता है
अब तुम ही बताओ –
कहाँ जाऊं इस सिकुड़े हुए दिल को लेकर?
रख लो मेरे सिकुड़े हुए दिल को अपने ही पास,
मुझे तुम्हारा कड़वा सच अब हो गया है स्वीकार
रख लो मेरे सिकुड़े हुए दिल को अपने ही पास,
या फिर
अपनी अमर-वाणी में संशोधन कर
अपनत्व के भाव को शाश्वतता दो
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