Thursday, January 26, 2012



प्रेम

मैंने देखा है नदी को करीब से
और
हवाओं के दवाब से
उसकी उठती-गिरती लहर धडकनों को भी,
कौन कहता है – नदी निष्प्राण है ?

मैंने नदी से पूछा –
किया है तुमने कभी प्यार ?
उसने कहा –
हाँ, किया है
और करती रहूंगी लगातार

मैंने पूछा –
कौन है वह ?
उसने बताया –
दूर गगन में रहता वह
हर दिन रूप बदलता वह,
कभी-कभी वह जाता गाँव
मैं थक-हार बैठ जाती तब
नयन बिछाए उसकी राह,
आता वहां से केश कटाए
अपना मुँह छोटा करवाए,
किन्तु जब भी वह आ जाता
मुझमें नया उमंग भर जाता,
मैं उछल-उछल शोर मचाती
थिरक-थिरक गाना गाती

मैंने कहा –
लेकिन वह तो बहुत दूर है,
मिला नहीं तुम्हें और कोई
इतना बड़ा यह भव है,
फिर चाँद संग मिलन तुम्हारा
कठिन ही नहीं, असंभव है

क्रोधित हुई नदी, फिर बोली –
जानती थी –
तू मानव कितना गिर गया है !
प्रेम को
तूने ही किया है कलंकित,
बना दिया है अर्थहीन,
बांध दिया है तन के सुख से
कि डरने लगे हैं लोग अब प्रेम से

अरे ! याद कर
मेरे ही कूल पर बसी कुटिया में
रहने वाले ऋषि ने बताया था –
प्रेम तन का नहीं,
मन से मन का मिलन होता है,
और देख,
देख झाँककर तू मुझमें
क्या चाँद नहीं दीखता मेरे धवल ह्रदय में !

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